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साधारण रूप से अग्नि प्रज्वलित कर उसमें आहुति देने को यज्ञ कहते हैं किन्तु वास्तव में यज्ञ का अर्थ है दो वस्तुओं, क्रियाओं, भावों आदि के मिलने पर नवीन की उत्पत्ति होना । इस दृष्टि से यह समस्त संसार यज्ञ ही है । हमारा शरीर अग्नि है । हमारे चारों ओर जो आकाश है - वही सोम का सागर है। यही सोम, अहर्निश शरीर के ताप को भी सन्तुलित रखता है, शरीर का पोषण भी करता है। यही विष्णु, प्राण है। यही प्रकृति का नित्य यज्ञ है। यज्ञ के लिए दो पदार्थों की आवश्यकता होती है- अग्नि और सोम । अग्नि को भोक्ता तथा सोम को भोग्य कहते हैं । वेद में इनको क्रमशः अन्नाद और अन्न कहा जाता है। इस दृष्टि से वेद वचन है कि 'अग्निसोमात्मकं जगत्' अर्थात् यह विश्व अग्नि और सोम से निर्मित हुआ है। यह यज्ञ सृष्टि में हर स्तर पर निरन्तर चल रहा है। यदि परमेष्ठी का सोम सूर्य को न मिले तो वह हमें ताप एवं प्रकाश नहीं दे सकता । इस ताप या आग्नेय तत्त्व की शरीर में ही विद्यमानता रहती है। इसको वैश्वानर अग्नि कहा जाता है। कृष्ण कह रहे है कि अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । अनुगीता में कहा है कि देह में प्रकाशित होने वाले वैश्वानर अग्नि की सात ज्वालाएं - नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान, मन तथा बुद्धि हैं । इसकी सात समिधाएं क्रमशः सूंघने, पीने, देखने, स्पर्श करने, सुनने तथा मनन करने योग्य और समझने योग्य है । इस वैश्वानर अग्नि ( हवन करने वाले) के क्रमशः सूंघने, भक्षण करने, देखने, स्पर्श करने, सुनने, मनन करने तथा समझने वाले सात ऋत्विज ( यज्ञकर्ता ) कहे जाते हैं।

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